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शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

खुशी की ओर पहला कदम ...

 "दर्द ! कैसा दर्द !! "
   " अब दर्द कहाँ होता है डॉक्टर  ?   कहीं भी हाथ रखो , दर्द नहीं होता मुझे !  यह तो मेरे बदन में लहू बन कर दौड़ रहा है ! मैंने सुना है कि प्रसव पीड़ा भी बहुत दर्द दायक होती है। अब मैं वही दर्द महसूस करना चाहती हूँ।  मेरा इलाज़ करो। अगर इस दौरान मैं मर भी जाती हूँ तो आपको कोई दोष नहीं लगाएगा। यह भी मैं लिखने को तैयार हूँ। "
       खुशी  मेरे सामने गिड़गिड़ा सी रही थी।
" लेकिन यह मैं अपनी जिम्मेदारी पर नहीं कर सकती  ख़ुशी , तुम साथ में अपने पति को लाओ या सास को ही ले आओ। "
       " ठीक है डॉक्टर , आज मेरा दिन है मेरे पति के साथ ! बात करती हूँ ! "
  खुशी नाम ना जाने क्या सोच कर रखा था माता -पिता ने ,जबकि ख़ुशी का कोई स्थान ही नहीं इसके जीवन में। कुछ महीनों से यह मेरे पास इलाज़ के लिए आ रही है। पहले मुझसे जूनियर डॉक्टर के पास इसका केस था।
    शादी के बाद माँ नहीं बनी। घर में किसी को इसके माँ बनने की कोई चिंता नहीं थी शायद इसलिए अकेली ही आती थी। मैंने कहा भी था कि उसका पति साथ क्यों नहीं आता। क्या उसे बच्चे की चाहत नहीं है ? वह बस काम का बहाना कर देती कि उसके पति को काम है। लेकिन अब , जब उसके सभी परीक्षण किये जा सकते थे कर लिए थे मैंने। यह आखिरी परीक्षण था जिसमें मैंने उसे पति  को साथ लाने  को कहा। एक तो उस प्रक्रिया में दर्द बहुत था और दूसरे कि अगर मुझे कुछ दोष नज़र आये तो मैं उसके पति को समझा सकूँ।
      वह बोल कर चली गई कि आज उसका ' दिन ' है पति के साथ। जब उसने पहली बार यह कहा तो मैं बहुत चौंकी थी कि वह ऐसा क्यों बोली। पूछा भी था। वह चुप सी चली गई।
     अगले दिन मेरे आग्रह से पूछने  पर बताया कि वह उसके पति की दूसरी पत्नी है।
" तो क्या पहली पत्नी जिन्दा नहीं है ? "
" ज़िंदा है !"
संक्षिप्त सा उत्तर दे कर चली गई।
      मुझे हैरानी और खीझ हो आई। कैसे पहेलियाँ सी बुझा कर चली जाती है यह औरत। फिर ख्याल भी आया कि मुझे क्या पड़ी है ? मैं क्यों इसकी निज़ी जिंदगी में झाँकने की कोशिश कर रही हूँ। कोई उसके साथ आये या ना आये मुझे इससे क्या ?
        अगले दिन वह अकेली ही आई। मेरे पूछने पर वह रोने लगी कि उसके साथ कोई नहीं है। घर में सबके होते हुए भी वह अकेली है। वह चाहती है कि  उसके एक बच्चा हो जाये। कोई तो हो जो उसे अपना कहे। जो उसने अपने बारे में बताया , उसे  सुन कर मुझे बहुत दुःख हुआ।
          खुशी के पिता की  मौत उसके बचपन में ही हो गई थी। माँ ने पिता की जगह नौकरी करते हुए जैसे -तैसे  उसे और बड़े भाई को पाला। अभी दसवीं में ही थी कि माँ भी चल बसी। तब तक भाई की नौकरी लग गयी थी। बचपन की चंचलता तो माँ को हाड़ तोड़ मेहनत करते हुए देख कर  ही खत्म हो गई थी और किशोरावस्था के सुहाने सपने माँ के चले जाने से टूट गए। बस  ख़ुशी थी वह , दिल से खुश कब हुई थी , नहीं याद उसको।
        रिश्तेदारों ने भाई की शादी करवा दी। घर भी सँभालने वाला चाहिए। भाभी को वह  मुफ्त की नौकरानी से कम नहीं लगी। स्कूल और घर का काम दोनों करती ख़ुशी का जीवन मशीन की तरह बन गया था। मन में कोई चाह नहीं थी। जैसे -तैसे बारहवीं पास की। दूर के रिश्ते की मामी ने रिश्ता करवा दिया। ख़ुशी ने विरोध भी किया लेकिन पढ़ कर कौनसा कलक्टर बनना है उसे , कह कर चुप करवा दिया।
           कपिल से विवाह हो गया। दुल्हन बन ससुराल आ गई। सामान्य मध्यम वर्गीय परिवार था। ससुराल में इतना प्यार मिला कि वह मायके के सारे दुःख भूलने लगी।  सास-ससुर बहुत प्यार करने वाले। जेठ पिता समान तो जेठानी माता समान थी , उनके दो बच्चे भी बहुत प्यारे थे। कपिल भी बहुत प्यार और ख्याल करने वाला पति था। कभी -कभी उसे सपने जैसा लगता और सोचने लगती कि क्या जीवन में इतनी खुशियाँ भी हो सकती है।
      मगर नाम से खुशी होने से क्या होता है। वह तो किस्मत में भी तो होनी चाहिए ! नहीं थी उसकी किस्मत में कोई भी ख़ुशी।
         ईश्वर क्या सच में इतना बेरहम हो सकता है !
          शायद हाँ !
             पता नहीं !! तभी तो शादी के छह महीने बाद ही उसका सपना टूट गया। बिखर गई खुशियाँ एक बार फिर। कपिल का शव जब घर पहुंचा तो जैसे भूचाल सा आ गया हो। घर की दीवारें जैसे भरभरा कर टूट गई हो। बताया गया कि फैक्टरी में  मशीन से करन्ट आ गया था।
              छोटी सी उमर में ही कितने हादसे झेल  चुकी  खुशी अब टूट गयी थी। सदमा सा दिल में बैठ गया था। जीवन एक बार फिर यंत्रवत्त हो गया।
                           बेरंग सा !!
           बेचारा सा महसूस करवाने वाला।
  सास का रवैया बदलने लगा था। ससुर गुमसुम से हो गए थे। जेठ से पहले भी कोई सरोकार नहीं था अब भी  नहीं , पर्दा करती थी। जेठानी का बर्ताव जरूर हमदर्दी वाला था। बच्चों से बातें  कर कुछ दुःख भुला देती थी।
      एक दिन फैक्टरी से एक आदमी आया और कागज़ों पर दस्तखत करवा कर गया।  उसे समझ नहीं आया कि यह कैसे कागज़ थे और सास इतनी मीठी क्यों बनी हुई थी। उस रात देर तक सास -ससुर के कमरे में आवाज़ें आती रही थी। जेठ जी भी बोल रहे थे। क्या बात हो रही थी, उसे समझ नहीं आ रही थी।
     सुबह का आलम कुछ अजीब सा लगा उसे। अजीब सा सन्नाटा था घर में। रसोई में गई। जेठानी चाय बना रही थी। पैर छूने को हुई तो पीछे सरक गई। ख़ुशी अचरज से उसे ताकने लगी तो मुहं फेर लिया जेठानी ने। शायद आँखे भरी थी लेकिन चेहरे पर घृणा जैसे भाव थे।
      सारा दिन उस के साथ कोई नहीं बोला। ना ही बच्चों को पास आने दिया गया। वह हैरान थी। हिम्मत करके जेठानी से पूछा भी। " चल यहाँ से !दूर होजा मेरी नज़रों से मनहूस  !! " कह कर वह फूट -फूट कर रोने लगी।
वह  हैरान- परेशान सी थी। कोई बोलता नहीं।  कोई बताता भी नहीं। घर में फोन भी नहीं था कि मायके ही बात कर ले।ससुर और जेठ के पास अपने-अपने मोबाईल फोन थे। उसे कौन बात करवाता।
         मायका ! आह निकली उसके दिल से ! कौन था उसका अब वहां ? फिर भी एक आस रहती है कि कोई तो ठंडी हवा का झोंका आएगा जो उसके मन को शीतल कर जायेगा। भाई की बहुत याद आ रही थी उसे।
      दो दिन बाद वह आश्चर्य चकित रह गई जब सच में उसका भाई उसके सामने खड़ा था। वह दौड़ कर भाई के गले लग गई और बिलख पड़ी। भाई भी अपने आप पर काबू ना रख सका। वह भी रो पड़ा। क्यों कि  कहीं न कहीं एक अपराध बोध भाई के मन में भी था।कुछ देर बहन -भाई ने सुख दुःख किया। उसे  को पता चला कि भाई को बुलवाया गया था। किस वजह से बुलाया , यह नहीं पता था।
          वजह पता चली तो पैरों तले जमीन ही खिसक गई जैसे। फिर जो हुआ वह सिर्फ गुनाह ही था।  खुशी को भाई की रजामंदी से जेठ की चादर ओढ़ा दी गई।
          पिता समान जेठ अब पति था और माता समान जेठानी अब उसकी सौत थी। उसे अब जेठानी की समझ आ गई थी।   स्वाभाविक भी था , कोई भी औरत अपने पति को बाँट नहीं सकती। खुशी की हालत तो और भी बदतर थी कि जिस इंसान से पर्दा करती थी , जो पिता तुल्य था , उसे पति रूप में कैसे स्वीकार करे। यह अनैतिक तो था ही  गैरकानूनी भी तो था। काश कि वह और उसकी  जेठानी पढ़ी लिखी होती , विरोध करती तो दोनों की ही जिंदगी इतनी बदतर नहीं होती।
       लेकिन ऐसा हुआ नहीं और दोनों स्त्रियों ने ही गलत परम्परा के आगे घुटने टेक दिए। तय किया गया कि पति एक दिन बड़ी बहू के साथ तो दूसरे दिन छोटी बहू के साथ रात बिताएगा । बहुत अच्छा न्याय था दोनों पत्नियों के साथ !
               जिस रात पति ख़ुशी के साथ होता वह रात दोनों के लिए जैसे मौत की रात होती , बड़ी को यह सहन ही नहीं हो रहा होता  उसका पति अब बँट गया है। और खुशी ! वह यह स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी कि पिता समान जेठ  अब पति है।
         चाहने से क्या होता है। हालात थे  ! दोनों स्त्रियां झुकती ही चली गई। बच्चे भी बेरुख  गए थे। उसे  लगने लगा कि  कोई बच्चा आ जाये तो  कुछ सुकून  मिले।  दो साल तक माँ नहीं बनी तो  उसे चिंता होने लगी। सास को कहा तो बोली वह क्या करेगी बच्चों का , दो बच्चे तो हैं। यही जवाब पति की और  से भी मिला। वह रोई ,कुछ दिन मिन्नत भी की। तरस आ गया पति को , अस्पताल जाने की इज़ाज़त तो दे दी। लेकिन इस शर्त के साथ कि वह साथ नहीं जायेगा।
        अब वह मेरे सामने बैठी थी। अपनी कहानी सुनाती , आँसू पौंछती हुई। मैंने पानी  का गिलास थमाते हुए पूछा , " खुशी ! मुझे एक बात नहीं समझ आई कि तुम्हारी शादी तुम्हारे जेठ से ही क्यों करवाई गई ? जबकि तुम्हारा विवाह किसी और  के साथ भी तो  किया जा सकता था ! "
        " लालच था ! "
" पति की मृत्यु के बाद कम्पनी ने  बीमे और मुआवजे का रुपया मुझे ही देना था। घर का पैसा घर में ही रहे इसलिए मुझे जेठानी की सौत बना दिया गया। "
     ओह ! लालच की कैसी पराकाष्ठा थी !!
" तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ है खुशी। " मैंने बुरा शब्द पर जोर देते हुए कहा।
     " अब तुम क्या चाहती हो ? तुम्हारा पति तुम्हारे साथ नहीं है। बल्कि वह तो खुश ही हो रहा होगा कि बच्चे का झंझट भी नहीं है और बिस्तर गर्म करने का साधन भी सहज उपलब्ध है। तुम्हें पता भी है क्या  , तुम्हारी शादी गैरकानूनी है। अगर तुम शिकायत करती तो तुम्हारे पति पर दबाब पड़ता कि ऐसे  में उसकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है तो वह तुमसे यह शादी नहीं करता।  "
    " जी डॉक्टर ! मुझे मालूम है कि गैर क़ानूनी है। लेकिन मेरे साथ  नहीं था।  मैं क्या करती ?"
     " अगर मैं कहूँ तो हर इंसान अपनी हालत का खुद जिम्मेदार होता है। तुमने विरोध की  एक आवाज़ तो उठानी  थी। फिर देखती कितने हाथ आ  जाते तुम्हारे सहारे  के लिए। घर में कोई नहीं था तो बाहर किसी  राज़दार बनाती। अब तो कितनी ही सरकारी -गैर सरकारी संस्थाएं हैं जो बे -सहारा औरतों को स्वाबलंबी बनने  सहायता करती है। "
      " आपने सही कहा डॉक्टर। मैं कमजोर पड़ गई क्यूंकि जीवन ने मुझे दुःख और हादसों के सिवा कुछ नहीं मिला है। कोई सहारा -सांत्वना देने वाला भी नहीं। यहाँ तक कि मेरा माँ जाया भाई भी राखी की लाज निभा नहीं सका। अपना बोझ ही समझा मुझे। "
      " खैर ,अब तुम अपने घर से किसी को तो साथ लाओ। वैसे मैं तुम्हारे भाई और तुम्हारे पति की पहली पत्नी से मिलना चाहती हूँ। तुम किसी तरह मना कर ले आओ उनको। "
       खुशी ने कहा कि वह कोशिश करेगी। चली गई।
मुझे मालूम है कि मुझे किसी की जिंदगी में दखल देने का अधिकार नहीं है। मगर मैं एक डॉक्टर होने के साथ -साथ एक स्त्री भी हूँ जो दूसरी स्त्री का दर्द समझ सकती हूँ। मेरे मन में उस बिन माँ की बच्ची के लिए ममता उमड़ पड़ी। ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि ईश्वर उसकी  गोद जरूर हरी करे।
        लगभग एक सप्ताह बाद ख़ुशी अपने भाई -भाभी और जेठानी के साथ आई। परीक्षण के  बाद  सभी को  अपने पास बुलाया  कहा कि ख़ुशी माँ नहीं बन सकती।  उसकी जेठानी और भाभी तो बिना प्रतिक्रिया बैठी रही। भाई  दुखी था। ख़ुशी को जरूर एक आस थी कि शायद ! क्या मालूम !!लेकिन अब वह मायूस हो कर फूट -फूट कर रो पड़ी।
    " मुझे बहुत दुःख हो रहा है कि तुम दोनों ख़ुशी को रोते हुए देख कर भी नहीं पसीजी। क्यूंकि एक की वह सौतन है और दूसरी इस डर  से कि प्रेम से पेश आएगी तो कहीं यह तुम्हारे गले ना पड़ जाए। जरा इंसान बन कर भी तो सोचो। " मैं उन दोनों महिलाओं से कहा।
      ख़ुशी को चुप करवाते हुए उसके भाई से कहा , " क्या तुम्हें अपनी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया ! एक विवाहित को ब्याह दिया अपनी बहन को। क्या तुम्हारा फ़र्ज़ नहीं था कि  तुम उसका उत्तरदायित्व निभाओ। "
    भाई बगलें झाँकने के अलावा कुछ नहीं कर सका।
 " और तुमने अपने पति की दूसरी शादी के लिए हाँ कर दी और खुशी को  सौत स्वीकार कर लिया। "
 " मैं क्या करती ! मेरी कौन सुन रहा था ? "
   " क्यों , तुम  बे -जुबान थी ? या समझ नहीं थी ! अरे ! तुम दो बच्चों की माँ थी। तुम्हारे कदम जम चुके थे घर में ! तुम जरा सी हिम्मत करती। अपने बच्चों सहित घर छोड़ देने की धमकी देती। और नहीं तो आगे बढ़ कर ख़ुशी को ही बेटी के रूप में स्वीकार कर उसके सर पर हाथ रख देती। तुम्हारे पति का क्या ? वह पुरुष है। भोगने को सहज सुलभ स्त्री मिल रही थी। लोभ रोक नहीं पाया होगा। तुम्हारा फ़र्ज़ था कि तुम पति को समझाती। अपनी गृहस्थी को उजड़ने दिया स्वयं  तुमने और दोष ख़ुशी को देती रही !" मैं जरा आवेश में आ गई।
     मधु ( खुशी की जेठानी ) को अब समझ आया कि उसने क्या गलती की। " मुझमें इतनी हिम्मत आई ही नहीं थी डॉक्टर जी ! "  पछतावा मिश्रित दुःख था चेहरे पर।
    " रोशनी (खुशी की भाभी ) तुमने क्या किया !! एक बिन माँ की बच्ची को बोझ समझ कर घर से बाहर धकेल दिया ! सोचो अगर तुम्हारी बेटी ऐसे हालात से गुज़रती तो तुम क्या करती ? "
    रोशनी निरूत्तर थी। जवाब देती भी क्या ?
" तुम रोशनी के भाई हो , तुम अब भी इसके लिए कुछ कर सकते हो। तुम इसे ससुराल से ले आओ। वैसे भी वह शादी गैर क़ानूनी है। तुम पुलिस की धमकी का इस्तेमाल कर सकते हो। यह बाहरवीं तक पढ़ी है। कई संस्थाए हैं जो लड़कियों -महिलाओं की मदद करती है। वहां इसे प्रशिक्षण दिलवाओ और अपने पैरों पर खड़ी होने में मदद करो। "
    " लेकिन , लोग क्या कहेंगे ! "
" लोग तो अब भी कहते ही होंगे कि यह कैसी ना इंसाफी है ! कुछ लोग तो तुम्हे भी बुरा कहते होंगे कि कैसे भाई -भाभी हैं। अब जो तुम करोगे उस से ना केवल ख़ुशी का जीवन संवरेगा बल्कि तुम्हारे दिवगंत माता-पिता की आत्मा भी शांत होगी। यह बहन है तुम्हारी , तुम्हारा फ़र्ज़ है ! तुम ऐसे मुहं नहीं फेर सकते ! और मधु , तुम भी भाई की सहायता करोगी तो तुम्हारी गृहस्थी एक बार फिर खुशहाल हो जाएगी और ख़ुशी के जीवन में खुशियाँ आ जाएगी। "
          वे सभी चले गए। खुशी के जीवन में क्या होता है और कितनी ख़ुशी आती है , यह उसकी किस्मत पर निर्भर करता है ? नहीं !  उसकी खुद की हिम्मत पर है ! आखिर में पहला कदम तो उसे   ही उठाना होगा अपने जीवन को खुशहाल करने के लिए। मैं तो सिर्फ दुआ और शुभकामना  के साथ उसकी  हर सम्भव सहायता कर  सकती हूँ।

      उपासना सियाग 
नयी सूरज नगरी 
गली न 7 
नौवां चौक 
अबोहर ( पंजाब )
पिन  152116 
फोन न  8264901089 

       

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