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रविवार, 29 दिसंबर 2013

मोनालिसा की सी मुस्कान ( लघु कथा )

" रमणी , तू क्या खाती है ! कितनी स्लिम ट्रिम है ! तेरा डाईट चार्ट लाना , मैं भी वही खाऊँगी कल से !" आमला चकित सी और थोड़ी ईर्ष्यालु सी हुई जा रही थी रमणी से कहते हुए।
रमणी जो कि जिम कि परिचारिका थी। भूख और हालात कि मारी हुई। जैसे- तैसे परिवार और छोटे बच्चे का पेट पाल रही थी।
भारी भरकम आमला का भार कई महीने से जिम आते हुए भी कम नहीं हो रहा था। ऐसे में शायद अनजाने में ही रमणी की डाइट- चार्ट पूछ बैठी।
अब रमणी क्या बताती कि वह सिर्फ गम खाती है। अच्छा खाना कब खाया था ,याद ही नहीं। लेकिन प्रकट में वह मुस्कुरा रही थी अपने होठों पर मोनालिसा की सी मुस्कान लिए।

रविवार, 15 दिसंबर 2013

एक पल

        सुधा जब से किट्टी पार्टी से लौटी है तभी से चुप है। जैसे कुछ सोच रही है। हाँ , सोच तो रही है वह। आज जो बातें किट्टी में हुई। वे बातें उसे थोडा आंदोलित कर रही है। कभी -कभी वह खुद अपने आप पर ही झुंझला जाती है कि वह दूसरी औरतों की  तरह बेबाक क्यूँ नहीं है। क्यूँ नहीं वह उनकी बचकानी बातों का समर्थन कर खिलखिला कर हंसती। आज तो बहुत गम्भीर विषय था तो भी बातों का स्तर कितना हल्का था।
         बात दामिनी को ले कर चली थी। दामिनी के साथ जो हादसा हुआ और किस तरह सभी के मनों को झिंझोड़  गया था। जितना शोर मचा था, वह सिर्फ मिडिया में ही था। बहुत कम लोग थे जिन्होंने दामिनी से सहानुभूति दिखाई हो। क्या उसके बाद ऐसे हादसे नहीं  हुए !
      सारिका के यह कहने पर कि बॉय फ्रेंड के साथ कु -समय जायेगी तो यही होगा ! सुधा से रहा नहीं गया और बोल पड़ी कि यह भी क्या बात हुई अगर वह उस समय अपने किसी  परिजन के साथ होती तो या अगर घर में कोई बीमार हो जाता और उसे अचानक अकेली ही घर से निकलना पड़ता तो ! क्या जो कुछ उसके साथ हुआ वह जायज था। हम सभ्य समाज में रहते हैं। किसी जंगल में तो नहीं कि भेड़िया आएगा और खा जायेगा ! क्या उन लोगों के अपने परिवार की कोई लड़की होती तो क्या वे सब यह करते ? इस पर भी कई मतभेद उभरे। लेकिन सभी का एक मत कि देर रात ऐसे घर से निकलना नासमझी ही है। जब तक  हालत सुधरते नहीं। खुद की  सावधानी भी जरुरी होती है।
        खुद सावधान रहना चाहिए। इस बात को तो सुधा भी मानती है। वह बचपन में ही माँ से सुनती हुई आयी थी कि अपनी सावधानी से हमेशा बचाव रहता है। माँ रात को सोने से पहले घर के सारे कुंडे -चिटकनिया और परदे के पीछे हमेशा झाँक कर देखती और सावधानी का वाक्य दोहरा देती थी। जब वह होस्टल गयी तो भी माँ ने यही वाक्य दोहराया और यह भी सलाह दे डाली कि किसी से भी ज्यादा दोस्ती ना करो ना ही बैर रखो। माँ की यह सलाह उसके गाँठ बांध ली और अभी भी तक अमल करती है इस बात पर। तभी तो वह सभी से  एक सामान व्यवहार कर पाती है।
        सुधा सोच रही थी कि हादसे तो कभी भी हो सकते हैं। रात का होना कोई जरुरी तो नहीं। यह तो बुरा वक्त होता है जो किसी का आना नहीं चाहिए। वक्त अगर दामिनी का खराब था तो वक्त उन दरिंदो का भी अच्छा नहीं था। तभी तो उनसे यह वारदात हुई। बुरे वक्त और अच्छे वक्त के बीच एक पल ही होता है जो इंसान पर हावी हो जाता है।
  ऐसा ही एक पल सुधा की जिंदगी में आया भी था। अगर वह स्वविवेक से काम न लेती तो...! इससे आगे वह सोच नहीं पाती और सिहर जाती है। हालंकि इस घटना को 26 वर्ष से भी अधिक हो चुका था।
     26 साल पहले जब वह होस्टल में थी तब उसके ताऊ जी भी वहीँ शहर में ही रहते थे।  दो-चार दिन के अवकाश में अक्सर  उनके घर चली जाया करती थी। एक बार तीन   छुट्टियाँ एक साथ पड़ रही थी तो उसने ताउजी के घर जाने की सोची। वार्डन से  छुट्टी की  आज्ञा ले कर हॉस्टल से बाहर आ गई। रिक्शा की तलाश करने लगी। उसको भीड़ से परेशानी और घुटन होती है तो वह सिटी बस से परहेज़ ही करती थी। एक रिक्शा मिला और 7 रुपयों में तय करके बैठ गई।  कुछ दूर जाने पर  उसे लगा कि  रिक्शा वाला गलत रास्ते पर जा रहा है । उसे रास्ता मालूम था। उसने रिक्शे वाले को टोका भी कि वह गलत जा रहा है।  वह बोला कि ये शॉर्ट -कट है।
         सुधा ने सोचा हो सकता है कि इसे ज्यादा मालूम है। लेकिन उसे फिर भी शक हुआ जा रहा था कि वह गलत जा रहा है। कई देर चलने के बाद वह एक पैट्रोल -पम्प के पास जा कर रुका और बोला कि शायद वह रास्ता भूल गया और पूछ कर आ रहा है। सुधा चुप कर बैठी रही। तभी कुछ आवाज़ें सुनायी दी तो उसने गरदन घुमाई। सामने यानि पैट्रोल -पम्प के पीछे की तरफ एक कमरे के आगे से दो आदमी उसको अपनी तरफ बुला रहे है। वह रिक्शे से उतरने को हुई। अचानक  फिर दिमाग में एक विचार कोंध गया कि वह क्यूँ उतर रही है !कलेजा उछल कर गले में आ गया। लेकिन कस कर रिक्शा पकड़ लिया और गरदन घुमा  कर बैठ गई।
      थोड़ी ही देर में रिक्शा वाला आकर बोला कि वह खुद जा कर रास्ता पूछ ले। सुधा का हालाँकि कलेज़ा कांप रहा था फिर भी जबड़े भींच कर लगभग डांटते हुए बोली कि रास्ता उसे पता है। वह उसे ले जायेगी। रिक्शे वाला उसके तेवर देख कर सहम गया और रिक्शे पर बैठ कर बोला तो बताओ किधर ले चलूँ।
       सुधा के ताऊजी पुलिस के बड़े अधिकारी थे। उसने उनका नाम लेते हुए कहाँ कि उसे पुलिस स्टेशन ले चले। वही से वह उनके घर जायेगी। जहाँ उसने जाना था वहाँ के थाने का नाम लिया। थोड़ी देर में ही वह पुलिस स्टेशन के सामने था। उसके ताऊजी पुलिस अधिकारी तो थे लेकिन वे वहाँ कार्यरत नहीं थे।
       अब सुधा ने कहा कि  रिक्शा आगे बढ़ाये और वह घर ही जायेगी। ऊपर से मज़बूत दिखने का ढोंग करती सुधा मन ही मन बहुत डर गयी थी। घर का रास्ता ही भूल गयी। सुबह 10 बजे की हॉस्टल से  निकली सुधा को डर के साथ भूख भी सताने लगी थी। दोपहर के दो बजने को आये थे।
   अब तो रिक्शे वाला भी चिढ़ गया था। बोला कि जब उसे घर का पता नहीं था तो वह आयी ही क्यूँ ? तभी उसे थोड़ी दूर पर ताऊजी के घर के आगे गार्ड्स दिखाई दिए। राहत की  साँस सी आई और रिक्शा वही ले जाने को कह दिया। घर के आगे पहुँच कर  उसने रिक्शा वाले को 7 रूपये देने चाहे तो वह रुहाँसा हो कर बोला मालूम भी है कितने घंटे हो गए हैं।
   सुधा बोली ,"तेरी गलती ! मैं क्या करूँ तू गलत ले कर ही क्यूँ गया ! सामने गार्ड्स दिख रहे हैं क्या ? उनको बताऊँ तेरी हरकत , मैं तो ये सात  रूपये भी नहीं देने वाली थी। चल जा यहाँ से। "
वह चुप करके रूपये ले कर चलता बना।
    सुधा का मन था कि काश आज माँ सामने होती और गले लग कर सारा डर दूर कर लेती। बाद में ताईजी को बताया तो उन्होंने कहा भी कि उसे जाने क्यूँ दिया। उसकी शिकायत करनी थी।  तब तो  उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था और वह यह सोच ही नहीं पाई थी । तब ताईजी ने कहा कि जो बात हुई नहीं उस पर विचार मत करो और सोचो कि तुमने आज सात रुपयों में आधा शहर घूम लिया। दोनों हंस पड़ी इस बात पर।
     सोचते -सोचते वह मुस्कुरा पड़ी। यह एक पल ही होता है जो इंसान को अच्छे या बुरे वक्त में धकेल देता है। फिर भी खुद की  सावधानी जरुरी तो है ही।


उपासना सियाग

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

मैं ऑक्टोपस क्यूँ न भई ...!

' मैं ऑक्टोपस  क्यूँ न भई '.... शीर्षक पढ़ कर चौंकिएगा नहीं। एक गृहिणी जो सुबह से लेकर शाम तक , नहीं शाम तक नहीं ! आधी रात तक खटती हो , वह यह जरुर मानेगी कि उसके ऑक्टोपस कि तरह बहुत सारी भुजाएं क्यूँ ना हुई।
   हम माँ लोग, अपने बच्चों को लाड़ -प्यार में इतना बिगाड़ देती हैं कि वो कुछ भी काम नहीं करेंगे। सब कुछ उनको उनके पास ही पहुँच जाए। केवल बच्चों को ही क्यूँ हम तो हमारी सासु माँ के बिगड़े हुए बच्चे को भी आज्ञाकारी पत्नी बन कर सर चढ़ा लेती हैं।
    नहाने जाओ तो ' माँ तौलिया देना। मेरे जूते  तो पॉलिश कर दो। बस आज -आज कर दो कल से पहले ही कर दिया करेंगे। मेरी प्यारी मम्मा कपडे़ भी निकाल दो अलमारी से। आप कितनी अच्छी हो। ' रोज़ के डायलॉग है बच्चों के ! और मैं कभी उनके  प्यार में , ममता और कभी मक्खनबाजी से उनको और बिगाड़ती रहती हूँ। उनका तो कल कभी नहीं आया।
   यही हाल पति देव का भी ! उनके कपडे  सफ़ेद कड़क स्टार्च वाले होने चाहिए। मज़ाल है कि कोई धब्बा भी रह जाये। कोई रह भी जाये तो फिर गले से इतनी मधुर आवाज़  कि दिल बैठ जायेगा कि  जरुर कोई नुक्स है। मैं जरुर जोर से चिल्ला  पड़ती हूँ कि  नहीं मैं नहीं आउंगी ! कोई नुक्स है तो एक तरफ रख दीजिये। फिर से धो दूंगी।
   पति जी तो सुबह एक घूंट चाय के साथ शुरू हो जाते हैं कि ये नुक्स है या फिर से बना कर लाओ। अब सुबह -सुबह इनके नखरे उठाऊं या बच्चों को देखूं। तब मन करता है कि भगवान को पुकारूँ कि उसने मुझे औरत तो बना दिया फिर  ऑक्टोपस की तरह कई सारी बाजू क्यूँ ना दी।
  खाना खाने बैठेंगे तो भी नखरे।  जो बना है उससे संतुष्टि नहीं। चलो कभी होता है कोई फरमाईश कर दी कि ऐसे नहीं वैसे बना था। नहीं जी ! यहाँ तो कुछ भी खाना हो वह खाना सामने आने के बाद ही नखरे और नुक्स शुरू होते हैं। अपनी मर्ज़ी से थाली में डाला तो ये तो मैंने खाना ही नहीं था। थाली आगे रखते ही बोलेंगे। जाओ आज तो दही कि लस्सी बनाओ। या लस्सी बना दो तो आज तो रायता खाना था। पहले पूछो तो बोलेंगे कि पहले सामने लाओ फिर देखूंगा और बताऊंगा कि तुमने क्या -क्या बनाया है। चटनी रखो तो आज मैंने हरी मिर्च खानी थी वह भी तवे पर तड़की हुई। मिर्च लाओ तो उनको आचार खाना होता है। एक मिनिट भी सांस तो क्या ले कोई। खाना खाते हुए  जाने कितने चक्कर लगवाते हैं।
   एक दिन मैंने भी सोचा कि आज एक भी चक्कर नहीं लगाऊंगी। थाली में खाना रखा और एक ट्रे में सब कुछ रखा जिनका कि मुझे अंदेशा था कि वो क्या -क्या खा सकते हैं। मैंने खाना रखते हुए( साथ में ट्रे भी ) बोली कि आज मैं एक भी चक्कर नहीं काटूंगी। आपके लिए सारा सामान इस ट्रे में है। मेरे भी पैर दर्द कर रहे हैं। जम कर बैठ गयी कि आज नहीं उठूंगी।
   उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई और जोर से हंसी आ गयी कि एक चक्कर तो कटना पड़ेगा। मैंने बुरा सा मुहं बनाया तो हँसते हुए बोले कि चम्मच तो रखना ही भूल गयी। अब उठना तो पड़ा लेकिन रोकते हुए भी हंसी आ गई।
     जीवन में यह सब तो चलता रहता है। बच्चों और पति और बाकी घर वालों के लिए काम करना सच में मन को सुकून देता है।  बस अपनी वेल्यू नहीं भूलना चाहिए।
जो भी है खूब है।  और दोष भी किसका ! मैंने ही शिव जी से ऐसा नखरे वाला वर मानेगा था। ओक्टोपोस होती या ना होती पर काम करते हुए उसके जैसी भुजाएँ जरुर चाहिए होती है, कभी -कभी |

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

जीवन के रंग

       यह हमारा जीवन चलते -चलते ना जाने  कब क्या मोड़ ले लेता है कोई नहीं जानता।  मैं एक सामान्य गृहिणी , जो कि बेलन -कलछी चलाने तक ही सिमित थी। जिसे रचना 'र ' और कलम का ' क ' भी नहीं लिखना आता था , उसकी रचना भी छपेगी सोच नहीं था कभी। विज्ञान की छात्रा का कलम से क्या वास्ता। कलम उठाई भी तो बच्चों को पढ़ाने या राशन के सामान की  लिस्ट बनाने के लिए या घर में काम करने वालों , दूध -अखबार या सब्जी का हिसाब करने के लिए ही।  हां ! कभी कभार बच्चों को स्कूल के लिए कुछ लिख कर दिया वह बात अलग है। एक दिन एकाकीपन से तंग हो कर फेसबुक पर प्रोफाइल बनाया वह भी देर रात को ,बच्चों को फोन पर पूछ कर।
   8 जून 2011 को पहली कविता लिखी। वह भी तब , जब  मुझे कॉपी-पेस्ट करना भी नहीं आता था। कम्प्यूटर पर हिंदी लिखना भी नहीं आता था। मोबाइल से लिखी थी। फिर धीरे -धीरे कदम बढ़ाना सीखा। चुनौतियों को स्वीकार कर उनको पार करना मुझे बहुत भाता है।
  मुझे प्रेरित करने वाले श्री रविन्द्र शुक्ला जी अब इस दुनिया में नहीं है। उन्होंने मुझ सहित कई प्रतिभाओं को प्रेरित किया है।उनको निजी तौर पर नहीं जानती। एक अनजान व्यक्ति आपको प्रेरित करता है  तो  उसे


ईश्वर का भेजा हुआ दूत ही समझना चाहिए। मैं आस्तिक हूँ और ईश्वर कि सत्ता में पूर्ण विश्वास करती हूँ तो मुझे मेरे ईश्वर ने घुट -घुट कर मिटने से पहले ही उबार लिया।
  ऐसा नहीं है कि मुझे जिंदगी से कोई शिकायत रही है।  जो दिल से चाहा वह मिला मुझे। हाँ ! जो नहीं मिला वह   दिल से नहीं  माँगा मैंने शायद। जब इंसान कि बुनियादी जरूरतें हाथ बढ़ाने से पहले ही पूरी होने लगे तो इंसान एक अवसाद में आ जाता है। मेरे लेखन ने मुझे फिर से जीवन दान सा दिया है जैसे !
    सबसे पहले जब " स्त्री हो कर सवाल करती है " काव्य संग्रह के लिए रचनाएं भेजनी थी तो मुझे मेल भी नहीं करना आता था। तब मैंने शोभा मिश्रा जी का सहयोग माँगा। उन्होंने बहुत अच्छे से समझाया तो मैं मेल कर पाई। बाद में शोभा जी ने मुझे ब्लॉग बनाने में भी सहायता की।
  उसके बाद मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। मेरी कुछ कहानियाँ समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई है। मेरे लेखन कि वजह से सबसे अधिक प्रसन्न मेरे पापा और मेरी माँ है। मेरे पापा ने बहुत प्यार से सर पर हाथ फिराया जैसे कह रहे हों बेटियां भी नाम रोशन कर सकती है। मेरे भाई नहीं है ,चार बहने ही हैं हम। पापा मेरी सारी  कहानियां कवितायेँ पढ़तें है और समीक्षा भी करते हैं।

  आज जब गुलमोहर साँझा काव्य संग्रह मेरे हाथ में आया तो मैं बहुत अभिभूत हुई। इससे पहले मेरी कुछ कवितायेँ , " स्त्री हो कर सवाल करती है " और  " पगडंडियां "काव्य संग्रह में भी छपी है।
 आज मैं रविन्द्र शुक्ला जी , माया मृग जी , लक्ष्मी शर्मा जी ,अंजू चौधरी जी और मुकेश कुमार सिन्हा जी , शोभा मिश्रा जी और मेरी प्रिय सखी नीलिमा जी का भी (जिन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया , चैट बॉक्स में आ कर। नीलिमा जी हमेशा मुझे सही राय देती है )सभी को शुक्रिया करती हूँ जिन्होंने मुझे आगे बढ़ने को प्रेरित किया है। और आप सभी का भी जिन्होंने मेरी लिखी हुई रचनाये पढ़ी और  सराहना कर के हौसला दिया।